Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन

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हा प्रभो! तुम सुंदरता देकर मन को चंचल क्यों बना देते हो? मैंने सुंदर स्त्रियों को प्रायः चंचल ही पाया। कदाचित् ईश्वर इस युक्ति से हमारी आत्मा की परीक्षा करते हैं, अथवा जीवन-मार्ग में सुंदरता रूपी बाधा डालकर हमारी आत्मा को बलवान, पुष्ट बनाना चाहते हैं। सुंदरता रूपी आग में आत्मा को डालकर उसे चमकाना चाहते हैं। पर हां! अज्ञानवश हमें कुछ नहीं सूझता, यह आग हमें जला डालती है, यह हमें विचलित कर देती है।

यह कैसे बंद हो, न जाने किस चीज का कांटा था। जो कोई आके मुझे पकड़ ले तो यहां चिल्लाऊंगी, तो कौन सुनेगा? कुछ नहीं, यह न विलास-प्रेम का दोष है, न सुंदरता का दोष है, यह सब मेरे अज्ञान का दोष है, भगवान! मुझे ज्ञान दो! तुम्हीं अब मेरा उद्धार कर सकते हो। मैंने भूल की कि विधवाश्रम में गई। सदन के साथ रहकर भी मैंने भूल की। मनुष्यों से अपने उद्धार की आशा रखना व्यर्थ है। ये आप ही मेरी तरह अज्ञान में पड़े हुए हैं। ये मेरा उद्धार क्या करेंगे? मैं उसी की शरण में जाऊंगी। लेकिन कैसे जाऊं? कौन-सा मार्ग है, दो साल से धर्म-ग्रंथों को पढ़ती हूं, पर कुछ समझ में नहीं आता। ईश्वर, तुम्हें कैसे पाऊं? मुझे इस अंधकार से निकालो! तुम दिव्य हो, ज्ञानमय हो, तुम्हारे प्रकाश में संभव है, यह अंधकार विच्छिन्न हो जाए। यह पत्तियां क्यों खड़खड़ा रही हैं? कोई जानकर तो नहीं आता? नहीं, कोई अवश्य आता है।

सुमन खड़ी हो गई। उसका चित्त दृढ़ था। वह निर्भय हो गई थी।

सुमन बहुत देर तक इन्हीं विचारों में मग्न रही। इससे उसके हृदय को शांति न होती थी। आज तक उसने इस प्रकार कभी आत्म-विचार नहीं किया था। इस संकट में पड़कर उसकी सदिइच्छा जाग्रत हो गई थी।

रात बीत चुकी थी। वसंत की शीतल वायु चलने लगी। सुमन ने साड़ी समेट ली और घुटनों पर सिर रख लिया। उसे वह दिन याद आया, जब इसी ऋतु में इसी समय वह अपने पति के द्वार पर बैठी हुई सोच रही थी कि कहां जाऊं? उस समय वह विलास की आग में जल रही थी। आज भक्ति की शीतल छाया ने उसे आश्रय दिया था।

एकाएक उसकी आंखें झपक गईं। उसने देखा कि स्वामी गजानन्द मृगचर्म धारण किए उसके सामने खड़े दयापूर्ण नेत्रों से उसकी ओर ताक रहे हैं। सुमन उनके चरणों पर गिर पड़ी और दीन भाव से बोली– स्वामी! मेरा उद्धार कीजिए।

सुमन ने देखा कि स्वामीजी ने उसके सिर पर दया से हाथ फेरा और कहा– ईश्वर ने मुझे इसीलिए तुम्हारे पास भेजा है। बोलो, क्या चाहती हो, धन?

सुमन– नहीं, महाराज, धन की इच्छा नहीं।

स्वामी– भोग-विलास?

सुमन– महाराज, इसका नाम न लीजिए, मुझे ज्ञान दीजिए।

स्वामी– अच्छा तो सुनो, सतयुग में मनुष्य की मुक्ति ज्ञान से होती थी, त्रेता में सत्य से, द्वापर मंा भक्ति से, पर इस कलयुग में इसका केवल एक ही मार्ग है और वह है सेवा। इसी मार्ग पर चलो, तुम्हारा उद्घार होगा। जो लोग तुमसे भी दीन, दुखी, दलित हैं, उनकी शरण में जाओ और उनका आशीर्वाद तुम्हरा उद्धार करेगा। कलियुग में परमात्मा इसी दुखसागर में वास करते हैं।

सुमन की आंखें खुल गईं। उसने इधर-उधर देखा, उसे निश्चय था कि मैं जागती थी। इतनी जल्दी स्वामीजी कहां अदृश्य हो गए। अकस्मात् उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि सामने पेड़ों के नीचे स्वामीजी लालटेन लिए खड़े हैं। वह उठकर लंगडा़ती उनकी ओर चली। उसने अनुमान किया था कि वृक्ष समूह सौ गज के अंतर पर होगा, पर वह सौ के बदले दो सौ, तीन सौ, चार सौ गज चली गई और वह वृक्षपुंज और उनके नीचे स्वामीजी लालटेन लिए हुए उतनी ही दूर खड़े थे।

सुमन को भ्रम हुआ, मैं सो तो नहीं रही हूं? यह कोई स्वप्न तो नहीं है? इतना चलने पर भी वह उतनी ही दूर है। उसने जोर से चिल्लाकर कहा– महाराज, आती हूं, आप जरा ठहर जाइए।

उसके कानों में शब्द सुनाई दिए– चली आओ, मैं खड़ा हूं।

सुमन फिर चली, पर दो सौ कदम चलने पर वह थककर बैठ गई। वह वृक्षसमूह और स्वामीजी ज्यों-के-त्यों सामने सौ गज की दूरी पर खड़े थे।

भय से सुमन के रोएं खड़े हो गए। उसकी छाती धड़कने लगी और पैर थर-थर कांपने लगे। उसने चिल्लाना चाहा, पर आवाज न निकली।

सुमन ने सावधान होकर विचार करना चाहा कि यह क्या रहस्य है, मैं कोई प्रेत-लीला तो नहीं देख रही हूं, लेकिन कोई अज्ञात शक्ति उसे उधर खींचे लिए जाती थी, मानों इच्छा-शक्ति मन को छोड़कर उसी रहस्य के पीछे दौड़ी जाती है।

सुमन फिर चली। अब वह शहर के निकट आ गई थी। उसने देखा कि स्वामीजी एक छोटी-सी झोंपड़ी में चले गए और वृक्ष-समूह अदृश्य हो गया। सुमन ने समझा, यही उनकी कुटी है। उसे बड़ा धीरज हुआ। अब स्वामीजी से अवश्य भेंट होगी। उन्हीं से यह रहस्य खुलेगा।

उसने कुटी के द्वार पर जाकर कहा– स्वामीजी, मैं हूं सुमन!

यह कुटी गजानन्द की ही थी, पर वह सोए हुए थे। सुमन को कुछ जवाब न मिला।

सुमन ने साहस करके कुटी में झांका। आग जल रही थी और गजानन्द कंबल ओढे़ सो रहे थे। सुमन को अचंभा हुआ कि अभी तो चले आते हैं, इतनी जल्दी सो कैसे गए और वह लालटेन कहां चली गई? जोर से पुकारा– स्वामीजी!

गजानन्द उठ बैठे और विस्मित नेत्रों से सुमन को देखा। वह एक मिनट तक ध्यानपूर्वक उसे देखते रहे। तब बोले– कौन? सुमन!

सुमन– हां महाराज, मैं हूं।

गजानन्द– मैं अभी-अभी तुम्हें स्वप्न में देख रहा था।

सुमन ने चकित होकर कहा– आप तो अभी-अभी कुटी में आए हैं।

गजानन्द– नहीं मुझे सोए बहुत देर हुई, मैं तो कुटी से निकला नहीं। अभी स्वप्न में तुम्हीं को देख रहा था।

सुमन– और मैं आप ही के पीछे-पीछे गंगा किनारे से चली आ रही हूं। आप लालटेन लिए मेरे सामने चले आते थे।

गजानन्द ने मुस्कुराकर कहा– तुम्हें धोखा हुआ।

सुमन– धोखा होता, तो मैं बिना देखे-सुने यहां कैसे पहुंच जाती? मैं नदी किनारे अकेले सोच रही थी कि मेरा उद्धार कैसे होगा? मैं परमात्मा से विनय कर रही थी कि मुझ पर दया करो और अपनी शरण में लो। इतने में आप वहां पहुंचे और मुझे सेवाधर्म का उपेदश दिया। मैं आपसे कितनी ही बातें पूछना चाहती थी, पर आप अदृश्य हो गए। किंतु एक क्षण में मैंने आपको लालटेन लिए थोड़ी दूर पर खड़े देखा। बस, आपके पीछे दौड़ी। यह रहस्य मेरी समझ में नहीं आता। कृपा करके मुझे समझाइए।

गजानन्द– संभव है, ऐसा ही हुआ हो, पर ये बातें अभी तुम्हारी समझ में नहीं आएंगी।

सुमन– कोई देवता तो नहीं थे, जो आपका वेश धारण करके मुझे आपकी शरण में लाए हो?

गजानन्द– यह भी संभव है। तुमने जो कहा, वही मैं स्वप्न में देख रहा था और तुम्हें सेवाधर्म का उपेदश कर रहा था। सुमन, तुम मुझे भलीभांति जानती हो, तुमने मेरे हाथों बहुत दुख उठाए हैं, बहुत कष्ट सहे हैं। तुम जानती हो, मैं कितने नीच प्रकृति का अधम जीव हूं, लेकिन अपनी उन नीचताओं का स्मरण करता हूं, तो मेरा हृदय व्याकुल हो जाता है। तुम आदर के योग्य थीं, मैंने तुम्हारा निरादर किया। यह हमारी दुरवस्था का, हमारे दुखों का मूल कारण है। ईश्वर वह दिन कब लाएगा कि हमारी जाति में स्त्रियों का आदर होगा। स्त्री मैले-कुचैल, फटे-पुराने वस्त्र पहनकर आभूषण-विहीन होकर, आधे पेट सूखी रोटी खाकर, झोंपड़े में रहकर, मेहनत-मजदूरी कर, सब कष्टों को सहते हुए भी आनंद से जीवन व्यतीत कर सकती है। केवल घर में उसका आदर होना चाहिए, उससे प्रेम होना चाहिए। आदर या प्रेम-विहीन महिला महलों में भी सुख से नहीं रह सकती, पर मैं अज्ञान, अविद्या के अंधकार में पड़ा हुआ था। अपना उद्धार करने का साधन मेरे पास न था। न ज्ञान था, न विद्या थी, न भक्ति थी, न कर्म का सामर्थ्य था। मैंने अपने बंधुओं की सेवा करने का निश्चय किया। यही मार्ग मेरे लिए सबसे सरल था। तब से मैं यथाशक्ति इसी मार्ग पर चल रहा हूं और अब मुझे अनुभव हो रहा है कि आत्मोद्धार के मार्गों में केवल नाम का अंतर है। मुझे इस मार्ग पर चलकर शांति मिली है और मैं तुम्हारे लिए भी यही मार्ग सबसे उत्तम समझता हूं। मैंने तुम्हें आश्रम में देखा, सदन के घर में देखा, तुम सेवाव्रत में मग्न थीं। तुम्हारे लिए ईश्वर से यही प्रार्थना करता था। तुम्हारे हृदय में दया है, प्रेम है, सहानुभूति है और सेवाधर्म के यही मुख्य साधन हैं। तुम्हारे लिए उसका द्वार खुला है। वह तुम्हे अपनी ओर बुला रहा है। उसमें प्रवेश करो, ईश्वर तुम्हारा कल्याण करेंगे।

सुमन को गजानन्द के मुखारविंद पर एक विमल ज्योति का प्रकाश दिखाई दिया। उसके अंतःकरण में एक अद्भुत श्रद्धा और भक्ति का भाव उदय हुआ। उसने सोचा, इनकी आत्मा में कितनी दया और प्रेम है। हाय! मैंने ऐसे नर-रत्न का तिरस्कार किया। इनकी सेवा में रहती, तो मेरा जीवन सफल हो गया होता। बोली– महाराज, आप मेरे लिए ईश्वर रूप हैं, आपके ही द्वारा मेरा उद्घार हो सकता है। मैं अपना तन-मन आपकी सेवा में अर्पण करती हूं। यही प्रतिज्ञा एक बार मैंने की थी, पर अज्ञानतावश उसका पालन न कर सकी। वह प्रतिज्ञा मेरे हृदय से न निकली थी। आज मैं सच्चे मन से यह प्रतिज्ञा करती हूं। आपने मेरी बांह पकड़ी थी, अब यद्यपि मैं पतित हो गई हूं, पर आप अपनी उदारता से मुझे क्षमादान कीजिए और मुझे सन्मार्ग पर ले जाइए।

गजानन्द को इस समय सुमन के चेहरे पर प्रेम और पवित्रता की छटा दिखाई दी। वह व्याकुल हो गए। वह भाव, जिन्हें उन्होंने बरसों से दबा रखे थे, जाग्रत होने लगे। सुख और आनंद की नवीन भावनाएं उत्पन्न होने लगीं। उन्हें अपना जीवन शुष्क, नीरस, आनंदविहीन जान पड़ने लगा। वह इन कल्पनाओं से भयभीत हो गए। उन्हें शंका हुई कि यदि मेरे मन में यह विचार ठहर गए तो मेरा संयम, वैराग्य और सेवाव्रत इसके प्रवाह में तृण के समान बह जाएंगे। वह बोल उठे– तुम्हें मालूम है कि यहां एक अनाथालय खोला गया है?

सुमन– हां, इसकी कुछ चर्चा सुनी तो थी।

गजानन्द– इस अनाथालय में विशेषकर वही कन्याएं हैं, जिन्हें वेश्याओं ने हमें सौंपा है। कोई पचास कन्याए होंगी।

सुमन– यह आपके ही उपदेशों का फल है।

गजानन्द– नहीं, ऐसा नहीं है। इसका संपूर्ण श्रेय पंडित पद्मसिंह को है, मैं तो केवल उनका सेवक हूं। इस अनाथालय के लिए एक पवित्र आत्मा की आवश्यकता है और तुम्हीं वह आत्मा हो। मैंने बहुत ढूंढ़ा, पर कोई ऐसी महिला न मिली, जो यह काम प्रेम-भाव से करे, जो कन्याओं का माता की भांति पालन करे और अपने प्रेम से अकेली उनकी माताओं का स्थान पूरा कर दे, वह बीमार पड़े तो उनकी सेवा करे, उनके फोड़े-फुंसियां, मल-मूत्र देखकर घृणा न करे और अपने व्यवहार से उनमें धार्मिक भावों का संचार कर दे कि उनके पिछले कुसंस्कार मिट जाएं और उनका जीवन सुख से कटे। वात्सल्य के बिना यह उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। ईश्वर ने तुम्हें ज्ञान और विवेक दिया है, तुम्हारे हृदय में दया है, करुणा है, धर्म है और तुम्हीं इस कर्त्तव्य का भार संभाल सकती हो। मेरी प्रार्थना स्वीकार करोगी?

सुमन की आंखें सजल हो गईं। मेरे विषय में एक ज्ञानी महात्मा का यह विचार है, यह सोचकर उसका चित्त गद्गद् हो गया। उसे स्वप्न में भी ऐसी आशा न थी कि उस पर इतना विश्वास किया जाएगा और उसे सेवा का ऐसा महान गौरव प्राप्त होगा। उसे निश्चय हो गया कि परमात्मा ने गजानन्द को यह प्रेरणा दी है। अभी थोड़ी देर पहले वह किसी बालक को कीचड़ लपेटे देखती, तो उसकी ओर से मुंह फेर लेती, पर गजानन्द ने उस पर विश्वास करके उस घृणा को जीत लिया था, उसमें प्रेम-संचार कर दिया था। हम अपने ऊपर विश्वास करने वालों को कभी निराश नहीं करना चाहते और ऐसे बोझों को उठाने को तैयार हो जाते हैं जिन्हें हम असाध्य समझते थे। विश्वास से विश्वास उत्पन्न होता है। सुमन ने अत्यंत विनीत भाव से कहा– आपलोग मुझे इस योग्य समझते हैं, यह मेरा परम सौभाग्य है। मैं किसी के कुछ काम आ सकूं, किसी की सेवा कर सकूं, यह मेरी परम लालसा थी। आपके बताए हुए आदर्श तक मैं पहुंच न सकूंगी, पर यथाशक्ति मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगी। यह कहते-कहते सुमन चुप हो गई। उसका सिर झुक गया और आंखें डबडबा आईं। उसकी वाणी से जो कुछ न हो सकता, वह उसके मुख के भाव ने प्रकट कर दिया। मानों वह कह रही थी, यह आपकी असीम कृपा है, जो आप मुझ पर ऐसा विश्वास करते हैं! कहां मुझ जैसी नीच, दुश्चरित्रा और कहां यह महान पद। पर ईश्वर ने चाहा, तो आपको इस विश्वासदान के लिए पछताना न पडे़गा।

गजानन्द ने कहा– मुझे तुमसे ऐसी ही आशा थी। परमात्मा कल्याण करे।

यह कहकर गजानन्द उठ खड़े हुए। पौ फट रही थी, पपीहे की ध्वनि सुनाई दे रही थी। उन्होंने अपना कमंडल उठाया और गंगा-स्नान करने चले गए।

सुमन ने कुटी के बाहर निकलकर देखा, जैसे हम नींद से जागकर देखते हैं। समय कितना सुहावना है, कितना शांतिमय, कितना उत्साहपूर्ण! क्या उसका भविष्य भी ऐसा ही होगा? क्या उसके भविष्य-जीवन का भी प्रभात होगा? उसमें भी कभी ऊषा की झलक दिखाई देगी? कभी सूर्य का प्रकाश होगा। हां, होगा और यह सुहावना शांतिमय प्रभात आने वाले दिन रूपी जीवन का प्रभात है।

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